Monday, August 27, 2012

"GHAZAL PUBLISHED IN ONE OF FAMOUS LITERARY MAGAZINE "ABHINAV PRAYAS " JULY-SEPT 2012 EDITION (ALIGARH)"

"GHAZAL  PUBLISHED IN ONE OF FAMOUS LITERARY MAGAZINE "ABHINAV PRAYAS " JULY-SEPT 2012 EDITION (ALIGARH)" 




कभी  ख्याल  में  मंज़र  जो  एक   रहता  था 
वही  झुकी  हुई  शाखें  वही  दरीचा  था 

उसी  ने  फूल  खिलाये  तमाम  खुशियों    के 
वो  मुस्कुराता  हुआ  जो  तुम्हारा  लहजा  था 

किसी  की  आँखें  कहानी  सुना  रही  थीं  मुझे 
मोहब्बतों  का  रवां  बेजुबान   दरिया  था 

तुम्हारी  आँखें  समझती  थीं  दर्द  मेरा  भी 
तुम्हारे  दिल  से  कभी  ऐसा  एक  रिश्ता  था

मेरे  लबों  की  ज़मीन  पर  रवां  था  नाम  उसका 
किस  अहतियात  से  वो  मेरे  दिल  में  बस्ता  था 

मुझे  तो  रोज़  ही  मिलने  की  उस  से  ख्वाहिश  थी 
मगर  वो  'सीमा' बहुत  दूर  मुझ  से  रहता  था

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जैसे मुर्दा कर दिया था इश्क के इलज़ाम ने 
  मुझ में साँसें फूँक दी हैं आप के पैगाम ने 
  अब्र, आंचल, पेड़, पत्ते, सायबाँ, कुछ भी नहीं              
  किस जगह ला कर मिलाया है हमें अय्याम ने 
 तेरे आने की खबर ने देख क्या क्या कर दिया 
 कितने ही दीपक जला डाले हैं मेरी शाम ने 
 
 रात भर जागा किए हैं तेरी यादों के तुफैल,
 कितने ख्वाबों को बुना है इस दिले नाकाम ने.
मौत भी नाकाम हो कर लौटती है रोज़ रोज़
मुझको जिंदा जो रखा है इक तुम्हारे नाम ने  



Thursday, August 23, 2012

My Ghazal published in BAZM E SAHARA MAGAZINE in AUGUST 2012 EDITION

My Ghazal published in BAZM E SAHARA MAGAZINE in AUGUST 2012 EDITION
 
http://bazmesahara.com/01082012/Home.aspx  (PAGE-64)


1) रौशनी  से  भला  जुगनू  ये  निकलता  क्यों   है 
अक्स  इसका  मेरी  आँखों  में  बिखरता  क्यों  है 

गुफ्तुगू  में  जो  तेरा  ज़िक्र  कभी  आ  जाए
 दर्द  तूफ़ान  की  तरह  दिल  में  मचलता  क्यों  है 

रात  भर  चाँद  ने  चूमी  है  तेरी  पेशानी 
उसको  अफ़सोस  है  सूरज  ये  निकलता  क्यों  है 

किस  लिए  फैला  है  हसरत  का  धुवां   चारों  तरफ
 दिल  से  एक  आह  का  शोला  ये  निकलता  क्यों  है 

सोचती  रहती  हूँ फुर्सत में  यही   मैं "सीमा "
काम  जो  होना है  आखिर  वोही  टलता  क्यों  है 
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2)
वो ही फुरक़त के अँधेरे वही अंगनाई हो
तेरी यादों का हों मेला ,शब् -ए -तन्हाई हो

मैं उसे जानती हूँ सिर्फ उसे जानती हूँ
क्या ज़ुरूरी है ज़माने से शनासाई हो
  

इतनी शिद्दत से कोई याद भी आया ना करे
होश में आऊं तो दुनिया ही तमाशाई हो
  
मेरी आँखों में कई ज़ख्म हैं महरूमी के
मेरे टूटे हुए ख़्वाबों की मसीहाई हो


वो किसी और का है मुझ से बिछड कर “सीमा “
कोई ऐसा भी ज़माने में न हरजाई हो




Thursday, August 9, 2012

किताब -ए-ज़िन्दगी

Kitaab-e-zindagi ka har waraq shoula ugalta hai
Kiya hai qaid ek ek lafz mein aatash fishaan maine


किताब -ए-ज़िन्दगी का हर वरक़ शोला उगलता है 
किया है कैद एक एक लफ्ज़ में आतिश फिशां में ने


Seema Gupta Sher PUBLISHED IN ''SAHAFAT''(DAILY ) Friday 03rd August 2012



Seema Gupta Sher PUBLISHED IN ''SAHAFAT''(DAILY ) Friday 03rd August 2012 (http://sahafat.in/delhi/
p-3.htm)

"Tera chehra jab bhi dekha toh mujhe aisa laga
Jis tarah koi rubayi ho Umar Khayam ki "

" तेरा चेहरा, जब भी देखा तो मुझे ऐसा लगा
जिस तरह कोई रुबाई हो उमर खय्याम की "